कुण्डलीमिलान—कितना उचित, कितना व्यावहारिक?

by | Apr 26, 2022 | 0 comments

कुण्डलीमिलान—कितना उचित, कितना व्यावहारिक

लड़का-लड़की के विवाह हेतु दोनों की जन्मकुण्डली का मिलान करने की परम्परा है, जिसे मेलापकविचार, अष्टकूटमिलान, गणनादेखना या गुणमिलाना कहते हैं। इस क्रम में हम क्या करते हैं, क्या करना चाहिए, परम्परा कब से है, कितना सार्थक है, कितना व्यावहारिक है, कितना आवश्यक है इत्यादि विचारणीय विन्दु हैं। किन्तु इन विन्दुओं पर विचार करने से पूर्व विवाह-परम्परा और प्रकार पर विहंगम दृष्टिपात कर लेना समीचीन होगा।
दैवी, ब्राह्मी, मानसी सृष्टि की विडम्बनापूर्ण स्थिति में— ‘ ‘एकाकी न रमते सो कामयत’ वा ’एकोहं बहुस्यामः’ — ईक्षणा से मैथुनी सृष्टि की आवश्यकता प्रतीत हुई। उस समय प्रकृति का विमर्श (पुरुष) ने अपने ही दक्षिण-वाम भागों से क्रमशः पुरुष-स्त्री युग्म उत्पन्न किया और मैथुनी सृष्टि का श्रीगणेश हुआ। किन्तु ये व्यवस्था तात्कालिक थी। आगे, सभी पुरुषों में ये क्षमता तो थी नहीं कि इसी भाँति युग्म संरचना करते रहें और यदि करते भी रहते तो उनके बीच विधिवत वैवाहिक विधान सम्पादित करने का भी कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता। ऐसे में उनकी कुण्डलीमिलान प्रक्रिया का कोई अर्थ ही नहीं।
कालान्तर में प्रतिष्ठापित मैथुनीसृष्टि के जनक महर्षि काश्यप को माना जाता है। तदनुसार मानवेतर प्राणी भी काश्यपी सृष्टि के ही अंग हैं। दक्षप्रजापति ने अपनी साठहजार कन्याओं में तेरह कन्यायें काश्यप को प्रदान की। देवता, दैत्य, दानव, राक्षस, सरीसृप, पक्षी आदि सभी प्राणी दिति, अदिति, कद्रू, विनितादि तेरह पत्नियों से उत्पन्न हुए। स्पष्ट है कि इनकी कुण्डलीमिलान नहीं की गई।
विभिन्न पौराणिक प्रसंगों में हम पाते हैं कि सतयुग, त्रेता, द्वापर यहाँ तक कि कलियुग के प्रारम्भ तक स्वयंवर की परम्परा रही। स्वयंवर के लिए कन्या-पिता कन्या हेतु योग्यवर की कामना से कोई शर्त निश्चित करता था। वस्तुतः ये वर की योग्यता की परीक्षा थी। ऐसे में शर्त-पूर्ति अनिवार्य थी, न कि वर-कन्या की कुण्डली का मिलान। आचार्यों एवं राजाओं को कन्यायें क्रमशः दान व उपहारस्वरूप प्रदान की जाती थी—इस परम्परा में भी अष्टकूटमिलान की बात नहीं आती। वंशपरम्परा की अनिवार्यता के कारण विशेष परिस्थिति में ‘चरुपद्धति’ और ‘नियोग’ विधि से सन्तान उत्पत्ति की भी मान्यता रही है पूर्व युगों में।
वैवाहिक योग्यता के सम्बन्ध में मनुस्मृति ३-५ में निर्देश है— असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।। (जो कन्या माता के सपिण्ड यानी सात पीढ़ी के भीतर न हो और पिता के गोत्र की न हो (यानी अन्य गोत्र की हो) ऐसी कन्या द्विजातियों के विवाहार्थ श्रेष्ठ है।)
वीरमित्रोदय-संस्कारप्रकाश में यम ने निर्देश दिया है—
कुलं शीलं च वपुर्वयश्च विद्यां च वित्तं च सनाथतां च। एतान् गुणान्सप्त परीक्ष्य देया कन्या बुधैः शेषमचिन्तनीयम्।। (कुल, शील, शरीर, आयु, विद्या, धन और पराक्रम— इन सात बातों पर विचार करके ही कन्या का विवाह करे)।

याज्ञवल्क्यस्मृति अ.५५ में कहा गया है— जातिविद्यावयः शीलमारोग्यं बहुपक्षता। अर्थित्वं विप्रसम्पत्तिरष्टावेते वरे गुणाः ।। एतैरेव गुणैर्युक्तः सवर्णः श्रोत्रियो वरः । यत्नात्परीक्षितः पुंस्तवे युवा धीमान् जनप्रियः।।(कुल, शीलादि गुणों से युक्त सवर्ण ( यहाँ सवर्ण का अर्थ समान वर्ण से है, साथ ही हीनवर्ण की वर्जना का भाव निहित है), श्रोत्रिय (वेदाभ्यासी), पुरुषत्व की परीक्षापूर्वक, युवा, लौकिक-वैदिक कार्यों में बुद्धिवान, मृदुभाषी, स्मितहास आदि गुण युक्त वर से विवाह करे।)

नारदस्मृति में किंचित् और योग्यताओं की चर्चा है— उन्मतः पतितः क्लीवो दुर्भगस्त्यक्तबान्धवः । कन्यादोषौ च यौ पूर्वावेव दोषगणो वरे।। (विक्षिप्त, पतित, नपुंसक, भाग्यहीन, बन्धु-बान्धव द्वारा परित्यक्त, स्वतन्त्र विचार वाले वर को कन्या न दे)।
मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में आठ प्रकार के विवाह की चर्चा है—ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पिशाच। इनमें प्रथम चार को श्रेष्ठ और मध्य दो को मध्यम और अन्त के दो को निकृष्ट कहा गया है। कुण्डलीमिलान की स्थिति यदि बनती भी है तो प्रथम चार में ही। शेष चार (मध्यम और निकृष्ट) में तो किसी तरह के विचार की स्थिति ही नहीं बनती।

सृष्टि के प्रारम्भ से ही ज्योतिषविद्या कालपुरुष के नेत्र के रूप में प्रतिष्ठित रही है। प्रत्येक जीवन-व्यापार में ज्योतिष का सहयोग लिया गया है; किन्तु वैवाहिक उद्देश्य से कुण्डलीमिलान की प्रक्रिया और इसकी प्राथमिकता का कब से चलन हुआ पौराणिक गाथाओं या धर्मशास्त्रों में स्पष्ट कालनिर्देश नहीं मिलता। (कहीं होगा भी तो मुझे ज्ञात नहीं) कलिकाल में बहुत बातों की वर्जना है, बहुत विधियाँ लुप्त भी हो गयी। फिर भी अनेक आचार्यों ने स्पष्ट निर्देश किया है कि सर्वप्रथम ज्योतिष एवं सामुद्रिकशास्त्र में बतलाये गए लक्षणों पर विचार करे। यहाँ निरोग और दीर्घायु होने पर विशेष बल दिया गया है। क्योंकि विद्या, धन आदि गुण आरोग्य और दीर्घायु होने पर ही सार्थक होंगे, अन्यथा नहीं — पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमादिशेत् । आयुर्हीननराणां च लक्षणैः किं प्रयोजयेत्।।

उक्त प्रसंग में ज्योतिष एवं हस्तरेखादि शास्त्रों से वर-कन्या के आयु-आरोग्यादि लक्षणों का विचार करने का जो संकेत है, सम्भवतः यही आधार बनता है कुण्डलीमिलान का। यद्यपि धर्मशास्त्रसंग्रह एवं स्मृतिसंदर्भ नामक ग्रन्थों (श्लोक स्मरण नहीं है) स्पष्ट निर्देश है कि १८ वर्षों के पश्चात् गुणमिलान का कोई औचित्य नहीं, प्रत्युत दोषविचार और निवारण पूर्वक विवाह सम्पन्न करना चाहिए। अति विचारणीय तथ्य है कि वर्तमान समय में तो इस समय तक विवाह की कल्पना भी नहीं की जाती। कानून भी वयस्क होने की बात करता है।

अब जरा अष्टकूटमिलान की प्रक्रिया पर विचार करें। ध्यातव्य है योग्य विवाह हेतु शरीर और मन दोनों पर विचार करने की आवश्यकता है। कुल, शील, धन, विद्या आदि तो विचारणीय हैं ही। किन्तु इन्हें गौंण कहना चाहिए। शरीर स्वस्थ-सबल न रहा, मन न मिला दोनों का यदि तो सारा कुछ व्यर्थ है। शरीर से भी अधिक मन के मिलन को महत्त्व दिया गया। ‘चन्द्रमा मनसो जाताश्चक्षो सूर्यो अजायत। श्रोत्रांवायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ’— ऋग्वेद (पुरुषसूक्त) के इस मन्त्र के अनुसार चन्द्रमा को मन का अधिष्ठाता और सूर्य को चक्षु कहा गया है। सूर्य आरोग्य के अधिष्ठाता भी कहे गए हैं। मन के मिलन को प्राथमिकता देते हुए ही हमारे ऋषियों ने चन्द्रमा के गमनपथ वाले नक्षत्रों को आधार बनाया अष्टकूटमिलान में। ध्यातव्य है कि मेलापक विचार के लिए वर-कन्या के जन्मनक्षत्रों को ही आधार बनाया जाता है। जन्म नक्षत्र यानी वह नक्षत्र जिस पर जन्मकालिक चन्द्रमा का संचरण है, न कि सूर्यादि अन्य ग्रहों का। सभी ग्रह किसी न किसी नक्षत्रपथ पर हमेशा गमन करते रहते हैं , किन्तु यहाँ सिर्फ चन्द्रमा के भोग नक्षत्रों को ही लिया जा रहा है। पौराणिक प्रसंगानुसार सभी सताईस नक्षत्र चन्द्रमा की पत्नियाँ कहीं गई हैं। पति-पत्नी के सम्बन्ध विचार हेतु चन्द्रमा रूपी पति और नक्षत्र रूपी पत्नी की परस्पर मानसिक स्थिति पर ही विचार करते हैं अष्टकूट मिलान क्रम में। इसमें आठ आवान्तर विचार विन्दु हैं— वर्णो वश्यं तथा तारा योनिश्च ग्रहमैत्रकम्। गणमैत्रं भकूटं च नाडी चैते गुणाधिकाः।। यथा— १.वर्ण, २.वश्य, ३.तारा, ४योनि. ५.ग्रहमैत्री, ६.गण, ७.भकूट और ८.नाडी। क्रमशः इनका उत्तरोत्तर अधिक मान है। यानी वर्ण का एक, वश्य का दो, भकूट का सात एवं नाड़ी का आठ। नक्षत्र, चरण और राशि के अनुसार इनका निर्धारण हुआ है। अब इन अष्टकूटों को स्पष्ट कर लें—
१.वर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ध्यातव्य है कि जन्मना वर्णों की बात यहाँ नहीं है। सताईस नक्षत्र और बारह राशियों के आपसी विभाजन (सवादो नक्षत्र के हिसाब से) पर आधारित ये चार वर्ण कहे गए हैं। कूट मिलान क्रम में ब्राह्मण को चारों वर्णों में, क्षत्रिय को तीन वर्णों में, वैश्य को दो वर्णों में एवं शूद्र को अकेला रखते हुए- कूलगणना का मान निर्धारित है। सामान्यतया लोग इसका ही अर्थ लगा लेते हैं कि ब्राह्मण को चारों वर्णों में विवाह का अधिकार है। वस्तुतः ये नक्षत्रिकवर्णविभाजन के क्रम में बात कही गयी है, न कि चातुर्वण्यं मया सृष्ट के अर्थ में।
२.वश्य— इसका कूट-मान दो है और अवान्तर प्रकार पाँच हैं—चतुष्पद, मानव, जलचर, वनचर और कीट। समान वश्य में पूरे अंक दिए जायेंगे। जैसे लड़का-लड़की दोनों चतुष्पद श्रेणी में हैं तो उनका कूटमान दो होगा।
३.तारा—तारा का कूट मान तीन है और आवान्तर प्रकार नौ— जन्म सम्पद्विपक्षेम प्रत्यरि साधको वधः। मित्रः परममित्रश्च जन्मादीनिपुनःपुनः।। यहाँ भी परस्पर उसी भाँति मिलान करके कूटमान की गणना की जाती है। तीसरा, पाँचवा और सातवाँ तारा नामानुसार अशुभ होता है।
४.योनि— योनि का कूटमान चार है और अवान्तर प्रकार चौदह हैं। यथा—अश्व, गज, मेष, सर्प, श्वान, मार्जार, मूषक, गौ, महिष, व्याघ्र, मृग, वानर, नकुल एवं सिंह । इनमें परस्पर योनिवैर के विचार से कूटमान की गणना की जाती है। जैसे—गज और सिंह की जोड़ी परस्पर शत्रुता वाली होगी।
५.ग्रहमैत्री—ग्रहमैत्री का कूटमान पाँच है। ग्रहों में परस्पर मित्रता, शत्रुता और समता सम्बन्ध है। तदनुसार कूटमान प्रदान किया जाता है। जैसे लड़के के राशीश सूर्य हैं और लड़की के राशीश शनि तो परस्पर मित्रता नहीं हो सकती।
६.गण— गण तीन हैं—देव, मनुष्य और राक्षस तथा इसका कूट मान छः है। यहाँ भी पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर कूटमान प्रदान किया जाता है। जैसे देवता और राक्षस का कूटमान शून्य होगा। मनुष्य और देवता का कूटमान पाँच एवं देवता-देवता का कूटमान छः ।
७.भकूट— इसका कूटमान सात है। मेषादि द्वादशराशियों के परस्पर सम्बन्ध के अनुसार सात या शून्य कूटमान प्रदान किया जाता है।
८.नाडी— नाड़ी का कूटमान आठ है एवं अवान्तर भेद तीन हैं— आदि, मध्य और अन्त्य । यहाँ निर्णय अन्य कूटों से बिलकुल विपरीत होता है। यथा—लड़का-लड़की की नाडियाँ समान नहीं होनी चाहिए। अष्टकूटों में इसका मान सर्वाधिक है और मान्यता वरीय।
अष्टकूटों का कुल मान ३६ होता है। इसे ही ३६ गुण कहते हैं। विवाह हेतु आधे से अधिक गुण होना आवश्यक है। जैसे परीक्षा में आठ विषय में ५०% से अधिक अंक को सफल माना जाता है। व्यावहारिक दृष्टि से यहीं हमारी चूक हो जाती है। अष्टकूट के गुणमिलान का तो काफी चलन है समाज में किन्तु लता, पात, उपग्रह, क्रान्तिसाम्य, खार्जूर (एकार्गल), जामित्र, कर्तरी, उदयास्त, बाण एवं संक्रान्ति आदि दश दोष भी होते हैं, इसपर शायद ही किसी का ध्यान जाता है। इनके अतिरिक्त मंगल, शनि, राहु आदि पापग्रहों की लग्न, व्यय, पाताल, जामित्र, अष्टमादि भावों में उपस्थिति वैधव्य दोष उत्पन्न करता है, जो महान दोष के अन्तर्गत आता है। विदित हो कि गुणबाहुल्य के पश्चात् भी दोष-विचार और परिहार का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

अब इस आलेख के अन्तिम विन्दु (व्यावहारिक पक्ष) पर विचार करते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या अधिकाधिक गुण देखकर और दशदोषों का परिहार करके शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक रूप से अयोग्य जोड़ियों का मिलान करना पसन्द करेंगे?

वर्तमान समय में विवाह की उम्र काफी आगे सरका लिया है समाज ने। शिक्षा और कैरियर की सुव्यवस्था में विवाह का प्राकृतिक अवधि व्यतीत हो जाता है। दोनों का शारीरिक विकास और सौन्दर्य अपनी सीमा पार कर, ढलान की ओर सरकने लगता है। अविवेकपूर्ण अति महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा, दहेज आदि सामाजिक कुरीतियाँ भी आड़े आने लगती हैं। ऐसे में जैसे-तैसे कुण्डलीमिलान की खानापूर्ति करके काम सलटाना चाहते हैं आधे-अधूरे मन से।

उचित ये है कि जन्मकुण्डली को विवाह का शतप्रतिशत आधार न बनाया जाए, बल्कि ऋषि निर्दिष्ट अन्यान्य विन्दुओं पर भी विचार करें। केवल अष्टकूट पर अड़े न रहकर, सौभाग्य, सन्तान और सुखभाव का विचार वारीकी से करें । तदन्तर्गत परिहार और समाधान ढूढ़ें। साथ ही योग्यता का मापदण्ड धन, पद और सौन्दर्य न बने। बच्ची को ऐसा प्रशिक्षण दें कि दो दिलों ही नहीं, दो परिवारों को जोड़ सके। धरती की तरह धैर्यधारिणी हो। लड़कों में भी इस बात की समझ होनी चाहिए कि वह भोग्या और दासी नहीं है, प्रत्युत जीवनसंगिनी और कुलसंयमनी है। वह प्रेम और सम्मान दोनों की अधिकारिणी है।
और एक अहम बात– कुण्डली सिद्धान्त पर विश्वास न हो,तो नकली कुण्डली पेश करके किसी को धोखा न दें। इससे शास्त्र, समाज और स्वयं की हानि होती है । प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप से इसका दण्डभागी बनना पड़ेगा–कु्ण्डली देने वाले को भी और नकली बनाने वाले को भी। अस्तु।

साभार श्रीकमलेश पुण्यार्क गुरुजी

Written By Chhatradhar Sharma

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