
भगवान परशुराम
भगवान परशुराम
परशुराम जी स्वभाव से क्यों थे इतने क्रोधी? आखिर क्षत्रियों से क्यों हुआ इनको बैर?
सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु हुए, इन्हें श्राद्धदेव भी कहते थे।
इनकी पत्नी श्रद्धादेवी से एक कन्या हुई, नाम था इला।
इला को वशिष्ठ जी ने अपने तप बल से लड़का बना दिया। नाम पड़ा सुद्युम्न।
श्राप ग्रसित वन में सुद्युम्न पुनः इला बन गया।
इला लज्जा से वापस घर नहीं आई दूसरे वन में निवास करने लगी।
ब्रह्म पुत्र अत्रि से स्वयं ब्रह्मा जी चंद्रमा बन कर अवतरित हुए।
चंद्रमा और देव गुरु बृहस्पति से बुध नाम पुत्र हुआ।
बुध की भेंट इला से हुआ, दोनों ने गन्धर्व विवाह किया, तो पुरुरवा नाम पुत्र हुआ।
पुरुरवा जी के यश और कीर्ति को सुन कर उर्वशी अप्सरा ने कुछ शर्तों को रख कर पुरुरवा को पति बनाया।
पुरुरवा को उर्वशी से छह पुत्र हुए।
आयु,श्रुतायु,सत्यायु,रय,विजय और जय।
आयु के वंश मे श्री कृष्ण जी अवतार लिए।
हम चलते हैं विजय के वंश की ओर—
विजय का भीम, भीम का कांचन, काचन का होत्र, होत्र का जह्नु, जह्नु का पुरु,पुरु का बलाक, बलाक का अजक, अजक का कुस ,कुस का कुसांबु,कुसांबु का गाधी।
गाधी जी बड़े प्रतापी राजा हुए।
इनकी एक रुपवती कन्या थी , नाम था सत्यवती।
उसी समय एक तपस्वी ब्राह्मण हुए, नाम था ऋचीक।
ऋचीक जी अत्यधिक वृद्ध हो गए थे।
फिर भी मन किसके बस में रहा है?
जब तपस्वी सौभरि यमुना जल के अंदर तप करते मत्स्य युगल को क्रिडा करते देख कामना जाग्रति हो गई तब क्या कहा जाए।
ऋचीक जी के मन में भी गृहस्थ प्रवेश की इच्छा हो गई।
ऋचीक जी गाधी जी के घर पहुंचे।
गाधी ने पूजा की, आने का कारण पूछे।
ऋचीक ने कहा राजन मुझे विवाह करना है, अतः तुम अपनी कन्या का विवाह मुझसे करो।
गाधी ने विचार किया महात्मा जी तो अत्यंत वृद्ध हो गए हैं , हां कहता हूं तो कन्या का जीवन नष्ट हो जाएगा और यदि नहीं कहता हूं तो श्राप ग्रसित होऊंगा।
तब गाधी जी ने कहा महात्मा जी आप यदि मुझे एक हजार ऐसा घोड़ा लाकर दीजिए जो सर्वांग श्वेत हो और वाम कर्ण श्याम रंग का हो,तब मैं अपनी कन्या का विवाह आपके साथ करुंगा।
ऋचीक जी ने ध्यान लगाया ,जब उन्हें पता चला तब वरुण लोक गए और एक हजार श्याम कर्ण घोड़ा लाकर दिए।
इस प्रकार ऋचीक जी का विवाह सत्यवती से हुआ।
सत्यवती ने मन लगाकर पति सेवा की ,एक दिन ऋचीक जी सत्यवती पर प्रसन्न होकर वरदान मांगने कहा।
सत्यवती ने कहा स्वामी, पतिव्रता पत्नी को पति से और क्या चाहिए,बस एक पुत्र प्रदान कीजिए।
ऋचीक जी ने तथास्तु कहा, और यज्ञ कर के दो चरु बनाया, पत्नी को बुलाकर कहे सत्यवती तुम्हारी माता को भी संतान नहीं है अतः यह रक्त कलश अपनी माता को दे देना और श्वेत कलश तुम पान कर लेना।
सत्यवती प्रसन्न होकर माता के पास गई, माता को उसने पूरी बात बताई।
माता के मन में विचार आया कि अवश्य दामाद जी ने अपनी पत्नी का चरु श्रेष्ठ बनाया होगा और मेरा चरु सामान्य होगा।
ऐसा जान अपनी कन्या के साथ चरु बदल ली।
कन्या ने अपना चरु माता को देकर माता का चरु स्वयं पान कर ली।
ऋचीक जी को जब बात पता चला बहुत पश्चाताप करने लगे।
सत्यवती ये तुमने क्या किया, तुम लोगों की भेद बुद्धि कैसे हो गई?
सत्यवती तुम्हारी माता क्षत्राणी है इसलिए क्षत्रिय तेज से युक्त चरु उनके लिए पकाया था, और ब्रह्म तेज से युक्त चरु तुम्हारे लिए पकाया था।
अब तुम्हारी माता का पुत्र ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण होगा और तुम्हारा पुत्र घोर स्वभाव सबको दण्ड देने वाला होगा।
जब सत्यवती पश्चाताप करने लगी तब ऋचीक जी ने कहा ठीक है तुम्हारा पुत्र नहीं तो पौत्र लोगों को दण्ड देने वाला घोर स्वभाव का होगा।
माता का पुत्र *विश्वामित्र* जी हुए और सत्यवती का पुत्र जम्दग्नि जी हुए।
यही कारण था जो विश्वामित्र जी क्षत्रिय होते हुए ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण हुए।
इन्हीं का उदाहरण लोग देकर कहते हैं कि क्षत्रिय होकर अपने कर्म से ब्राह्मण हो गए।जबकि ब्राह्मणत्व प्राप्त करने का कारण था मंत्र बल। ब्रह्म तेज से पूरित चरु का प्रभाव था।
आगे जानते हैं परशुराम जी के बारे में—
जम्दग्नि जी का विवाह हुआ रेणु ऋषि की कन्या रेणुका जी से।
इनके पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र के रुप में स्वयं परमात्मा विष्णु परशुराम नाम से अवतरित हुए।
ये भगवान के सोलहवें अवतार थे।
उसी समय यदु के भाई तुर्वषु के वंश में कार्तवीर्य का पुत्र कार्तवीर्यार्जुन हुआ।
दत्तात्रेय जी का परम भक्त था इनकी हजार भुजाएं थीं और अपार बल था।
एक दिन कार्तवीर्यार्जुन यमुना जी में जल विहार कर रहा था , यमुना जी की धारा उलट गई,उपर यमुना किनारे रावण का शिविर लगा था।जब रावण का शिविर डूबने लगा तब रावण क्रोधित होकर आया और अर्जुन को उलटा सुलटा सुनाने लगा।
अर्जुन ने देखा ये दश सिर और बीस हाथों वाला कौन है?
अर्जुन रावण को सहज में पकड़ कर माहिष्मति पुरी ले गया।
ऐसा बलवान था कार्तवीर्यार्जुन।
एक दिन कार्तवीर्यार्जुन जमदग्नि जी का अतिथि हुआ।
जमदग्नि जी ने विशेष अतिथि जान कर काम धेनु से आवश्यक वस्तु मांग कर आतिथ्य सत्कार किए।
काम धेनु के प्रभाव देख कर अर्जुन ने कामधेनु को मांगा।
जब जमदग्नि जी देने से मना किए तब बलात कामधेनु को छीन कर ले गया।
जमदग्नि जी विलाप करने लगे।
परशुराम जी आए और जब पिता के दुख का कारण जाने तब उन्हें बहुत क्रोध हुआ , अकेले अर्जुन की राजधानी गए और अर्जुन की हजार भुजाएं काट कर उनका सीस उतार दिए।
अर्जुन के दशहजार बेटे भाग गए।
एक दिन रेणुका जी पूजा के लिए जल लेने नदी गई, वहां चित्ररथ गंधर्व जल विहार कर रहा था, उसे देखते रेणुका जी घडी रह गई।
जब आश्रम आयी तब जमदग्नि जी विलम्ब का कारण जान गए।
रेणुका को मानसिक व्यभिचार हुआ जान अपने पुत्रों को अपनी माता का वध करने का आदेश दिए,जब कोई पुत्र आज्ञा पालन नहीं किए तब जमदग्नि जी ने परशुराम जी से कहा पुत्र तुम अपने भाइयों को और माता का वध कर दो।
परशुराम जी ने जो आज्ञा कहा और अपने भाईयों का और माता का वध कर दिया।
जमदग्नि जी प्रशन्न होकर कहे पुत्र मै तुमसे प्रशन्न हूं जो चाहो वर मांग लो।
परशुराम जी ने कहा पिता मेरी माता व भाइयों को जीवित कर दो, उन्हें पता नहीं चलना चाहिए कि मैंने उनका वध किया था।
इस प्रकार सभी सो कर उठे की तरह जीवित हो गए।
एक दिन जमदग्नि जी ध्यान मग्न बैठे थे उसी समय अर्जुन के दशहजार पुत्र जो भाग गए थे, जमदग्नि जी का सर धड़ से अलग कर दिए।
यहीं से परशुराम जी ने हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के इन दुष्ट क्षत्रिय पुत्रों का नास करने का ठान लिया।
परशुराम जी ने अर्जुन पुत्रों का वध कर दिया, केवल पांच लोग भाग गए।
आश्रम आकर परशुराम जी ने पिता के शीश को घड़ से जोड दिया, उन्हें संकल्प देह की प्राप्ति हुई,वे सातवें सप्तऋषि हुए।
परशुराम जी महेन्द्र पर्वत पर तप करने चले गए।
साभार: पं.विजय पाण्डेय, रायपुर